वास्तु शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘वास’ से हुआ है | वास का अर्थ होता है रहने का स्थान | और इसी ‘वास’ से बने है दो अन्य शब्द – ‘आवास’ और ‘निवास’ |
भवन निर्माण के विज्ञान के रूप में प्रचलित वास्तु शास्त्र का पहला उल्लेख उपलब्ध लिखित साहित्य की दृष्टि से आज से कई हज़ार साल पहले रचित वेदों में मिलता हैं | उस समय वास्तु के विज्ञान की जानकारी समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित थी और वे लोग इस ज्ञान को अपने उतराधिकारी के जरिये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते थे | शुरुआत में वास्तु के सिद्धांत मुख्यत: इस बात पर आधारित थे की सूर्य की किरणें पूरे दिन में किस स्थान पर किस तरह का असर करती है | और इसका अध्ययन करने पर जो नतीजे निकले उन सिद्धांतो ने आगे चलकर वास्तु के अन्य नियमों के विकास की आधारशिला रखी |
पहले कहा गया कि हम सब देश (space) से आबद्ध हैं | वह दस भागों में विभक्त है जिन्हें दिशाएं कहा गया है | अधिकतर लोग चार दिशाएं मानते हैं पर दिशाएं दस हैं | चार मुख्य दिशाएं पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण एवं उन चारों दिशाओं के कोने ईशान (पूर्वोत्तर), आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) तथा वायव्य (उत्तर-पश्चिम)। इसके अतिरिक्त दो दिशाएं और हैं- उधर्व व अध: (उपर व नीचे) |
नकारात्मक वास्तु के प्रभाव –
सकारात्मक वास्तु के लाभ –